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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
अध्याय - 8
यक्ष एवं यक्षिणी मूर्तिकला
(Yaksha and Yakshini Sculpture)
प्रश्न- यक्ष और यक्षणी प्रतिमाओं के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।
उत्तर -
वैदिक काल उपरान्त मूर्तिकला के क्षेत्र में हम ऐसे समय (काल) में पदार्पण करते हैं जहाँ से मूर्तिकला का एक क्रमबद्ध इतिहास ज्ञात होता है। भारत में ऐतिहासिक रूप से प्राचीन मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। वे मगध के शैशुनाक वंश (727 ई. पू. से 366 ई. पू.) के कई राजाओं की है। इन मूर्तियों पर खुदे हुए इन राजाओं के नाम से इस कथन को पुष्टि मिली। उस समय भारत सोलह महाजन पदों. या बड़े-बड़े प्रदेशों में बँटा हुआ था, जिसमें कहीं गणतन्त्र शासन प्रणाली और कहीं राजतन्त्र शासन प्रणाली प्रचलित रही थीं। मगध इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली प्रदेश था। कला की परम्परा या प्रमाण उन महाकाव्य यक्ष प्रतिमाओं द्वारा प्राप्त होता है जो मथुरा से उड़ीसा (ओडिशा), वाराणसी से विदिशा और पाटिलपुत्र के शूपरिक तक विस्तृत क्षेत्र में पाई जाती हैं। पत्थर से निर्मित विशाल आदमकद मूर्तियाँ चारों ओर से काटकर बनाई जाती थीं। इनके सामने दर्शन की विशेषता है।
अजातशत्रु की प्रतिमा - शैशुनाक वंश की उपलब्ध प्रतिमाओं में से सर्वाधिक प्राचीन प्रतिमा अजातशत्रु की है। यह महात्मा बुद्धं का समकालीन था जो 552 ई. पू. गद्दी पर बैठा था। यह मूर्ति मथुरा के परखम नामक गाँव से मिली थी। अतः इसे परखम का यज्ञ के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मूर्ति की ऊँचाई लगभग 9 फीट है। महाकवि भास के प्रतिमा नाटक से ज्ञात होता है कि उस समय मृत व्यक्तियों (राजाओं) की मूर्तियाँ बनाकर एक देवकुल में रखी जाती थीं और उनकी पूजा होती थी। यह प्रथा सम्भवतः महाभारत काल से चली आ रही है। यह गुप्तकाल तक प्रचलित रही। अन्य मूर्तियों में अजातशत्रु के पोते अजउदयी (इसने पाटिलपुत्र बसाया था। मृत्यु 467 ई.) तथा उसके बेटे नंदिबर्धन (मृत्यु 418 ई. पू.) की पटना के समीप प्राप्त हुई थी। यह कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है।
इनकी शक्ति, महाप्रमाणकाय और प्रभविष्णु रूप से ज्ञात होता है कि ये देवताओं की मूर्तियाँ हैं। कुछ उल्लेखनीय यक्ष यक्षी प्रतिमाएँ निम्नलिखित हैं-
(1) मथुरा जिले के प्रखम ग्राम में प्राप्त यक्ष मूर्ति इसकी चौकी पर प्राप्त लेख के अनुसार इसे (म) निभद (= मणिभद्र) की संज्ञा दी है।
(2) मथुरा जिले के बारोद ग्राम से प्राप्त यक्ष !
(3) मथुरा जिले में झींग-का- नगला ग्राम से प्राप्त मनसादेवी यक्षी।
(4) भरतपुर जिले में नोह ग्राम से प्राप्त यक्ष की मूर्ति।
(5) वेसनगर (मध्य प्रदेश) से प्राप्त यक्षी प्रतिमा, जिसे तेलिन के स्थानीय नाम से जानते हैं।
(6) प्राचीन वाराणसी के राजघाट स्थान से प्राप्त त्रिमुख यक्ष (भारत कला भवन, वाराणसी)
(7) सोपारा (शूरपिक) से प्राप्त यक्ष मूर्ति (राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में सुरक्षित)
(8) उड़ीसा (ओडिशा) में शिशुपालगढ़ से मिली हुई अनेकों यक्ष मूर्तियाँ |
(9) अच्छित्रा के फल्गूबिहार से प्राप्त कुषाणकालीन यक्ष मूर्ति।
(10) मेहरौली से प्राप्त यक्षी।
(11) कुरुक्षेत्र में अमीन से प्राप्त यक्ष मूर्ति।
(12) विदिशा में बेरू और बेतवा के संगम से प्राप्त यक्ष मूर्ति।
(13) पटना जिले से प्राप्त दो मुखी यक्षी।
(14) पटना से प्राप्त यक्ष मूर्ति, जिस पर लेख उत्कीर्ण है एवं मौर्य चमक भी। वर्तमान में पटना संग्रहालय में संग्रहीत।
(15) पवाया गूजरी महल, ग्वालियर में मणिभद्र यक्ष की मूर्ति।
(16) पटना शहर में दीदारगंज से प्राप्त चामरधारिणी यक्षी प्रतिमा, जिस पर मौर्य शैली की चमक है। (पटना संग्रहालय में सुरक्षित)
यक्ष शैली - ये तीनों मूर्तियाँ एक ही शैली की बनी हैं जिसमें परखम का यक्ष, पटना के यक्ष (अजउदयी), नंदिवर्धन हैं। ये मूर्तियाँ मानव के वास्तविक आकार से भी बड़ी बनायी गई हैं। इनकी शैली में वास्तविकता का समावेश है। कला अत्यधिक विकसित शैली की कही जाती है। वास्तविकता का अधिक ध्यान रखा गया है। अतीत के संरक्षण व आदि मानव प्रवृत्ति पूर्णतया परिलक्षित है। विद्वानों ने एकमत से इन्हें 'यक्ष मूर्तियाँ' कहा है। ये मूर्तियाँ कठिन, रूढ़ि, जीवनहीन, सीधी- समझ और अत्यन्त सीमित रचना है और इनमें कोई गति दृष्टव्य नहीं होती है। शरीर के अंग समान अनुपात में हैं। कंधे चौड़े एवं मजबूत हैं। वक्षस्थल मजबूत एवं धड़ पुरुषोचित है। पटना के यक्ष की मूर्ति भी जीवन शून्य की भाँति है परन्तु तराशी उचित ढंग से गई है। वस्त्रों के विन्यास, कमरबन्द जिसमें फुंदने लटके हुए हैं इत्यादि पर विशेष ध्यान दिया गया। माला के सूत्र को उचित बनाया गया।
यक्ष - यक्षी शैली की विशेषतायें - मौर्यकालीन प्रतिभाएँ तत्कालीन यक्ष पूजा की परम्परा पर प्रकाश डालती हैं और उस युग के लोक-धर्म को प्रदर्शित करती हैं। भारत में यक्ष पूजा अत्यन्त प्राचीन है। सिन्धु घाटी सभ्यता से उत्कीर्ण मोहरों पर कुछ ऐसे दृश्यांकन हैं, जिनसे तत्कालीन यक्ष पूजा का संकेत मिलता है। यहाँ तक कि वैदिक तथा पौराणिक साहित्य, महाकाव्यों और जैन- बौद्ध साहित्य में यक्ष परम्परा के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। अथर्ववेद में यक्षों को पूण्यजना कहा गया है। महाभारत के आरण्यक पर्व में विरुपाक्षं महाकाव्यं यक्षं तालसमुउच्छयम् कहकर यक्ष की प्रशंसा की गई है। रामायण में यज्ञ को अमर कहा गया। यक्षत्वमभरत्वं। महामयूरी ग्रन्थ में देश के विभिन्न नगरों के नगर देवता के रूप में यक्षों की सूची दी गई है। महाभारत में ऐसा विवरण है कि पुत्र की कामना करने वाली स्त्रियाँ यक्ष पूजा के लिए जाती थीं। यही यक्ष परम्परा किसी न किसी रूप में आज भारत के गाँव-गाँव में बरमबाबा (ब्रह्मा) अथवा जक्ख जंखैय्या (यक्ष-यक्षी) के रूप में विद्यमान है।
(1) ये यक्षं प्रतिमाएँ आदमकद की हैं। इनका शारीरिक सौष्ठव मांसल एवं अत्यन्त बलिष्ठ है।
(2) ये चतुर्मुख दर्शन के आधार पर काटकर बनाई गई हैं। वे अलग रूप से खड़ी हैं परन्तु उनके दर्शन का प्रभाव संमुखीन है, मानो शिल्पी ने उन्हें संमुख दर्शनं के लिए गढ़ा हो।
(3) इनके वस्त्रों में सिर पर पगड़ी, कंधों और भुजाओं पर उत्तरीय, कमर पर कटिबन्ध व घुटने के नीचे तक की धोती है।
(4) इनके आभूषणों के कानों में भारी कुंडल, गले में भारी कंठा, चपटा तिकोना हार, हाथ भुजबन्द और कंगन उत्कीर्ण हैं।
(5) भारत में यक्ष पूजा अत्यन्त प्राचीन है।
(6) मौर्ययुगीन चमकदार पॉलिश वाली एवं दीदारगंज से प्राप्त बलुए पत्थर की आदमकद चामर धारिणी पक्षी प्रतिमा उपर्युक्त सभी यक्षी प्रतिमाओं में सुन्दर, सजीव व नारी सौन्दर्य का उत्कृष्टतम् रूप प्रस्तुत करती हैं।
(7) प्राक् मौर्य अथवा मौर्यकालीन कला की दो यक्षी तथा दीदारगंज (पटना की) चामर धारिणी यक्षी ओपदार पॉलिश अलंकृत हैं।
इसके अतिरिक्त देवताओं के वर्ग में यक्ष तथा यक्षिणी की अनेक मूर्तियाँ लेख और विन्यास के आधार पर भरहुत में पहचानी गई हैं। यक्षिणी छवियों में चन्द्रा, 'चूलाकोका और सुदर्शनायक्षी' मुख्य हैं। जिन्हें स्मृति की देवी माना गया है। यक्षों में गगितोयख सुप्रवास, कुबेर, यक्ष इत्यादि हैं। सुप्रवास, सुचिलोमा, आज बालक, विरुरढ़क इत्यादि यक्ष मूर्तियाँ भरहुत के शिल्प में उल्लेखनीय स्थान रखती हैं।
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